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देशांतर (23 फरवरी 2018), मुखपृष्ठ संपादकीय परिवार

ऋतु वर्णन
सेनापति

वर्षा

‘सेनापति’ उनए गए जल्द सावन कै,
चारिह दिसनि घुमरत भरे तोई कै।
सोभा सरसाने, न बखाने जात कहूँ भाँति,
आने हैं पहार मानो काजर कै ढोइ कै।
धन सों गगन छ्यों, तिमिर सघन भयो,
देखि न परत मानो रवि गयो खोई कै।
चारि मासि भरि स्याम निशा को भरम मानि,
मेरी जान, याही ते रहत हरि सोई कै।

शरद

कातिक की राति थोरी थोरी सियराति ‘सेना
पति’ है सुहाति, सुकी जीवन के गन हैं।
फूले हैं कुमुद फूली मालती सघन बन,
फूलि रहे तारे मानो मोती अगनन हैं।
उदित बिमल चंद, चाँदनी छिटकि रही,
राम को तो जस अध उरध गगन हैं।
तिमी हरन भयो सेट है नरन सब,
मानहु जगत छीरसागर मगन हैं।

हेमंत

सीत को प्रबल ‘सेनापति’ कोपि चढ़्यो दल,
निबल अनल दूरि गयो सियराइ कै।
हिम के समीर तेई बरखै बिखम तीर,
रही है गरम भौन-कोननि में जाइ कै।
धूम नैन बहे, लोग होत हैं अचेत तऊ,
हिय सो लगाइ रहे नेक सुलगाइ कै।
मानो भीत जानि महासीत सों पसारि पानि,
छतियाँ की छाँह राख्यो पावक छिपाइ कै।

वसंत

लाल लाल टेसू फूलि रहे हैं बिलास संग,
स्याम रंग मयी मानो मसि में मिलाये हैं।
तहाँ मधु-काज आइ बैठे मधुकर पुंज,
मलय पवन उपवन - बन धाये हैं।
‘सेनापति’ माधव महीना में पलाश तरु,
देखि देखि भाव कविता के मन आये हैं।
आधे अंग सुलगि सुलगि रहे, आधे मानो
विरही धन काम क्वैला परचाये हैं।

ग्रीष्म

वृष को तरनि तेज सहसौ किरनि तपै,
ज्वालनि के जाल बिकराल बिरखत हैं।
तपति धरनि जग झुरत झरनि, सीरी,
छाँह को पकरि पंथी-पंछी बिरमत हैं
‘सेनापति’ नेक दुपहरी ढरत होत,
घमका बिखम जो न पात खरकत हैं।
मेरे जान पौन सीरी ठौर को पकरि कोनौ,
घरी घरी बैठी कहूँ घाम बितवत हैं।
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लौट आओ दीपशिखा
(उपन्यास)

संतोष श्रीवास्तव

कितनी बड़ी त्रासदी थी कि दीपशिखा को अपने घर का एक कोना भी न मिला जहाँ उसकी तस्वीर पर फूलमाला चढ़ाई जाती, दीपक जलाया जाता, अगरबत्ती की पवित्र सुगंध होती। बंगला अँधेरे की गिरफ्त में था अँधेरे से टूटा अँधेरे का एक टुकड़ा। एक झिलमिलाती लौ तक करीब न थी जिसके। दीपशिखा हमेशा चर्चा का विषय रही लेकिन उसकी मौत इतनी खामोशी से होगी कि तीन दिनों तक किसी को पता ही न चले कि एक चर्चित शख्सियत किसी धूमकेतु की तरह तेज रोशनी के साथ आसमान में तो दिखाई देती है लेकिन फिर अंधकार के गर्त में कहाँ विलीन हो जाती है पता नहीं चलता। दीपशिखा मुफलिसी से नहीं निकली थी बल्कि नवाबी खानदान से ताल्लुक था उसका। विशाल, समृद्ध कोठी के कीमती खजाने की एकमात्र वारिस थी वह। जो पूरे गुजरात में पीपल वाली कोठी के नाम से जानी जाती थी।

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ISSN 2394-6687

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