वर्षा
‘सेनापति’ उनए गए जल्द सावन कै,
चारिह दिसनि घुमरत भरे तोई कै।
सोभा सरसाने, न बखाने जात कहूँ भाँति,
आने हैं पहार मानो काजर कै ढोइ कै।
धन सों गगन छ्यों, तिमिर सघन भयो,
देखि न परत मानो रवि गयो खोई कै।
चारि मासि भरि स्याम निशा को भरम मानि,
मेरी जान, याही ते रहत हरि सोई कै।
शरद
कातिक की राति थोरी थोरी सियराति ‘सेना
पति’ है सुहाति, सुकी जीवन के गन हैं।
फूले हैं कुमुद फूली मालती सघन बन,
फूलि रहे तारे मानो मोती अगनन हैं।
उदित बिमल चंद, चाँदनी छिटकि रही,
राम को तो जस अध उरध गगन हैं।
तिमी हरन भयो सेट है नरन सब,
मानहु जगत छीरसागर मगन हैं।
हेमंत
सीत को प्रबल ‘सेनापति’ कोपि चढ़्यो दल,
निबल अनल दूरि गयो सियराइ कै।
हिम के समीर तेई बरखै बिखम तीर,
रही है गरम भौन-कोननि में जाइ कै।
धूम नैन बहे, लोग होत हैं अचेत तऊ,
हिय सो लगाइ रहे नेक सुलगाइ कै।
मानो भीत जानि महासीत सों पसारि पानि,
छतियाँ की छाँह राख्यो पावक छिपाइ कै।
वसंत
लाल लाल टेसू फूलि रहे हैं बिलास संग,
स्याम रंग मयी मानो मसि में मिलाये हैं।
तहाँ मधु-काज आइ बैठे मधुकर पुंज,
मलय पवन उपवन - बन धाये हैं।
‘सेनापति’ माधव महीना में पलाश तरु,
देखि देखि भाव कविता के मन आये हैं।
आधे अंग सुलगि सुलगि रहे, आधे मानो
विरही धन काम क्वैला परचाये हैं।
ग्रीष्म
वृष को तरनि तेज सहसौ किरनि तपै,
ज्वालनि के जाल बिकराल बिरखत हैं।
तपति धरनि जग झुरत झरनि, सीरी,
छाँह को पकरि पंथी-पंछी बिरमत हैं
‘सेनापति’ नेक दुपहरी ढरत होत,
घमका बिखम जो न पात खरकत हैं।
मेरे जान पौन सीरी ठौर को पकरि कोनौ,
घरी घरी बैठी कहूँ घाम बितवत हैं।
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